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Din aate hai din jaate hai, Kuch lamhe aapke bin guzar nahin paate hai, inhi lamho ko sametkar dekhu toh aap bahut yaad aate hai.

Monday, May 11, 2009

Teri Khushboo main basey Khat

Tere khushboo mein basey khat main jalaataa kaise
pyaar mein doobey huye khat main jalaata kaise
tere haathon ke likhe khat main jalaata kaise

jin ko duniyaa ki nigaahon se chhupaaye rakhaa
jin ko ik umr kaleje se lagaaye rakhaa
deen jin ko, jinhein imaan banaaye rakhaa

jin kaa har lafz mujhe yaad thaa paani ki tarah
yaad thhe mujh ko jo paigaam-e-zubaani ki tarah
mujh ko pyaare thhe jo anmol nishaani ki tarah

toone duniyaa ki nigaahon se jo bachakar likhe
saalahaa-saal mere naam baraabar likhe
kabhii din mein to kabhii raat mein uthakar likhe

tere khushboo mein basey khat main jalaataa kaise
pyaar mein doobey huye khat main jalaata kaise
tere haathon ke likhe khat main jalaata kaise

tere khat aaj main gangaa mein bahaa aayaa hoon
aag bahate huye paani mein lagaa aayaa hoon...


~Rajendranath Rahba

Friday, January 30, 2009

भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार'

प्रोफ़ेसर चमनलाल
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली



महात्मा गांधी
महात्मा गांधी हिंसक तरीके से आज़ादी की लड़ाई के पक्षधर नहीं थे
आज़ादी के आंदोलन में भगत सिंह के समय में दो प्रमुख धाराएं थीं. एक निश्चित रूप से महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की धारा थी जो उस वक्त सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और व्यापक पहुंच वाली थी.

दूसरी धारा क्रांतिकारियों की धारा थी जिसके एक प्रमुख नेता थे भगत सिंह. हालांकि इस धारा का आधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का था लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी बहुत ताकतवर थे.

इस दौरान कांग्रेस के गरमदल के नेता, बिपनचंद्र पॉल, लाला लाजपत राय और बालगंगाधर तिलक गुज़र चुके थे और नरमदल वालों का वर्चस्व था जिसकी पूरी लगाम गांधी के हाथ में थी. गांधी इस वक्त अपने दौर के चरम पर थे.

गांधी शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था पर मध्यमवर्गीय नेताओं की इस नैतिक लड़ाई का आम लोगों को भी बहुत लाभ नहीं मिलता था.

महात्मा गांधी गुजरात के थे. अहमदाबाद उस वक्त एक बड़ा मज़दूर केंद्र था. एक सवाल पैदा होता है कि वहाँ के हज़ारों-लाखों लोगों के लिए गांधी या पटेल ने कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा किया. बल्कि कुछ अर्थों में गांधी ने वहाँ पैदा होते मज़दूर आंदोलन के लिए यही चाहा कि वो और प्रभावी न हो. मज़दूर आंदोलन में सक्रिय इंदुलाल याज्ञनिक जैसे कांग्रेसी नेता भी उपेक्षित ही रहे.

नेहरू थोड़ा-सा हटकर सोचते थे और ऐसे मॉडल पर काम करना चाहते थे जो व्यवस्था में बदलाव लाए पर इस मामले में वो कांग्रेस में अकेले ही पड़े रहे.

कांग्रेस और भगत सिंह

भगत सिंह की सबसे ख़ास बात यह थी कि वो कांग्रेस और गांधी के इस आंदोलन को पैने तरीके से समझते थे और इसीलिए उन्होंने कहा था कि कांग्रेस का आंदोलन आख़िर में एक समझौते में तब्दील हो जाएगा.


कई इतिहासकारों के मुताबिक गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. इस मामले में गांधी और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे था


उन्होंने कहा था कि कांग्रेस 16 आने में एक आने के लिए संघर्ष कर रही है और उन्हें वो भी हासिल नहीं होगा.

गांधी का रास्ता पूँजीवादी रास्ता था. कई पूँजीवादी, पूँजीपति और ज़मींदार गांधी के आंदोलन में उनके साथ थे. भगत सिंह का रास्ता इससे बिल्कुल अलग क्रांतिकारी समाजवादी आंदोलन का रास्ता था.

इतनी छोटी उम्र में भी भगत सिंह ने एक परिपक्व राजनीतिक समझ को सामने रखते हुए एक ज़मीन तैयार की जिससे और क्रांतिकारी पैदा हो सकें. भगत सिंह के दौर में क़रीब 2000 किशोर क्रांतिकारियों के ख़िलाफ़ मामले दर्ज हुए थे.

गांधी ने भगत सिंह के असेंबली पर बम फ़ेंकने के क़दम को 'पागल युवकों का कृत्य' करार दिया था. उधर भगत सिंह को लगता था कि गांधी जिस तरीक़े से आज़ादी हासिल करना चाहते हैं वो सफल नहीं होगा.

एक ही बात के लिए भगत सिंह गांधी के सामर्थ्य को मानते थे और उनका आदर करते थे और वो बात थी गांधी की देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुँच और प्रभाव.

गांधी बनाम भगत सिंह

जब 23 वर्ष के भगत सिंह शहीद हुए, उस वक्त गांधी जी की उम्र 62 वर्ष थी पर लोकप्रियता के मामले में भगत सिंह कहीं से कम नहीं थे. पट्टाभि सीतारमैया जैसे कांग्रेस के इतिहासकारों ने कहा है कि एक समय भगत सिंह की लोकप्रियता किसी भी तरह से गांधी से कम नहीं थी.


भगत सिंह
भगत सिंह नहीं चाहते थे कि उनकी फाँसी रोकने का श्रेय गांधी को मिले

भगत सिंह युवाओं के बीच देशभर में ख़ासे लोकप्रिय हो रहे थे. ब्रिटेन में भी उनके समर्थन में प्रदर्शन हुए थे. भगत सिंह की यह बढ़ती हुई लोकप्रियता कांग्रेस को एक ख़तरे की तरह दिखाई देती थी.

कई इतिहासकारों के मुताबिक गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले क्योंकि गांधी इस आंदोलन को रोक नहीं सकते थे, यह उनके वश में नहीं था. इस मामले में गांधी और ब्रिटिश हुकूमत के हित एक जैसे था. दोनों इस आंदोलन को प्रभावी नहीं होने देना चाहते थे.

इस मामले में गांधी और इरविन के संवाद पर ध्यान देना होगा जो कि इतना नाटकीय है कि दोनों लगभग मिलजुलकर तय कर रहे हैं कि कौन कितना विरोध करेगा.

दोनों इस बात पर सहमत थे कि इस प्रवृत्ति को बल नहीं मिलना चाहिए. भेद इस बात पर था कि इरविन के मुताबिक फाँसी न देने से इस प्रवृत्ति को बल मिलता और गांधी कह रहे थे कि फाँसी दी तो इस प्रवृत्ति को बल मिलेगा.

भगत सिंह की फाँसी

गांधी ने अपने पत्र में इतना ही लिखा कि इनको फाँसी न दी जाए तो अच्छा है. इससे ज़्यादा ज़ोर उनकी फाँसी टलवाने के लिए गांधी ने नहीं दिया. भावनात्मक या वैचारिक रुप से गांधी यह तर्क नहीं करते हैं कि फाँसी पूरी तरह से ग़लत है.

गांधी ने इरविन के साथ 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते में भी इस फाँसी को टालने की शर्त शामिल नहीं की. जबकि फाँसी टालने को समझौते का हिस्सा बनाने के लिए उनपर कांग्रेस के अंदर और देशभर से दबाव था.


मेरे विचार में भगत सिंह की फाँसी जहाँ एक ओर गांधी और ब्रिटिश हुकूमत की नैतिक हार में तब्दील हुई वहीं यह भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन की नैतिक जीत भी बनी


अगर यह समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे.

गांधी की बजाय सुभाषचंद्र बोस इस फाँसी के सख़्त ख़िलाफ़ थे और कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने गांधी से परे जाकर इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी जनसभा भी की.

इस सभा को रुकवाने के लिए इरविन ने गांधी को एक पत्र भी लिखा था कि इस सभा को रुकवाया जाए पर सुभाष चंद्र बोस गांधी के कहने से कहाँ रुकने वाले थे.

गांधी ने इस बातचीत के दौरान इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकों की फाँसी माफ़ कर दी जाएगी तो इन्होंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे. गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह से खंडन किया था.

असलियत तो यह है कि भगत सिंह हर हाल में फाँसी चढ़ना चाहते थे ताकि इससे प्रेरित होकर कई और क्रांतिकारी पैदा हों. वो कतई नहीं चाहते थे कि उनकी फाँसी रुकवाने का श्रेय गांधी को मिले क्योंकि उनका मानना था कि इससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान पहुँचता.

उन्होंने देश के लिए प्राण तो दिए पर किसी तथाकथित अंधे राष्ट्रवादी के रूप में नहीं बल्कि इसी भावना से कि उनके फाँसी पर चढ़ने से आज़ादी की लड़ाई को लाभ मिलता. इस मामले में मैं भगत सिंह को क्यूबा के क्रांतिकारी चे ग्वेरा के समकक्ष रखकर देखता हूँ. दोनों ही दुनिया के लिए अलग तरह के उदाहरण थे.

मेरे विचार में भगत सिंह की फाँसी जहाँ एक ओर गांधी और ब्रिटिश हुकूमत की नैतिक हार में तब्दील हुई वहीं यह भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन की नैतिक जीत भी बनी.
गाँधी जी के नाम खुली चिट्ठी


महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी अहिंसावादी तरीकों से आज़ादी के समर्थक थे
(गाँधीजी के नाम सुखदेव की यह ‘खुली चिट्ठी’ मार्च, 1931 में लिखी गई थी, जो गाँधी जी के उत्तर सहित हिन्दी ‘नवजीवन’, 30 अप्रैल, 1931 के अंक में प्रकाशित हुई थी. यहाँ सुखदेव के पत्र को प्रकाशित किया जा रहा है)

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परम कृपालु महात्मा जी,

आजकल की ताज़ा ख़बरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रांतिकारी कार्यकर्त्ताओं को फिलहाल अपना आंदोलन बंद कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौक़ा देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाएँ की हैं.

वस्तुतः किसी आंदोलन को बंद करना केवल आदर्श या भावना से होनेवाला काम नहीं है. भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है.

माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अंतिम समझौता न होगा.

मैं मानता हूँ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर भी कोई यह न मानेगा कि हम मंजिले-मकसूद पर पहुँच गए हैं.

संपूर्ण स्वतंत्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बँधी हुई है.

उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौता सिर्फ कामचलाऊ युद्ध-विराम है, जिसका अर्थ यही होता है कि आने वाली लड़ाई के लिए अधिक बड़े पैमाने पर अधिक अच्छी सेना तैयार करने के लिए यह थोड़ा विश्राम है.

इस विचार के साथ ही समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है.


आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं. पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं. मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है. देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं


किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्ते ठहराने का काम तो उस आंदोलन के अगुआओं का है.

लाहौर वाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिए आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है.

इसी तरह हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रांतिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातंत्र की स्थापना करना है.

यह प्रजातंत्र मध्य का विश्राम नहीं है. उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए बँधे हुए हैं.

परंतु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे. क्रांतिकारी युद्ध जुदा-जुदा मौकों पर जुदा-जुदा रूप धारण करता है.

कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आंदोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है.

ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आंदोलन बंद करने के लिए विशेष कारण होने चाहिए. परंतु आपने ऐसा कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया. निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रांतिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्त्व नहीं होता, हो नहीं सकता.

आपके समझौते के बाद आपने अपना आंदोलन बंद किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए हैं.

पर क्रांतिकारी कैदियों का क्या? 1915 से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सज़ा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे हैं.

मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिंदा कब्रों में दफनाये पड़े हैं. यही हाल बब्बर अकाली कैदियों का है.

देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बंद पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं.

लाहौर, दिल्ली, चटगाँव, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज़्यादा षड्यंत्र के मामले चल रहे हैं. बहुसंख्यक क्रांतिवादी भागते-फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रियाँ हैं.

सचमुच आधे दर्जन से अधिक कैदी फाँसी पर लटकने की राह देख रहे हैं. इन सबका क्या?


सुखदेव
यह पत्र हिंदी अख़बार 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ था

लाहौर षड्यंत्र केस के सज़ायाफ्ता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रांतिवादी दल का एक बड़ा हिस्सा नहीं हैं.

उनका भविष्य ही उस दल के सामने एकमात्र प्रश्न नहीं है. सच पूछा जाए तो उनकी सज़ा घटाने की अपेक्षा उनके फाँसी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है.

यह सब होते हुए भी आप इन्हें अपना आंदोलन बंद करने की सलाह देते हैं. वे ऐसा क्यों करें? आपने कोई निश्चित वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है.

ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है.


ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आंदोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है


यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रांतिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते.

अपना आंदोलन बंद करने के बारे में पहले आपको उनकी बुद्धी की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था.

मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रांतिकारी बुद्धिहीन हैं, विनाश और संहार में आनंद मानने वाले हैं.

मैं आपको कहता हूँ कि वस्तुस्थिति ठीक उसकी उलटी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार वे जो जिम्मेदारी अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल होता है.

और क्रांति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्त्व का मानते हैं, हालाँकि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा और कोई चारा उनके लिए नहीं है.

उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आंदोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए. अकेले पड़ जाने पर उनका शिकार आसानी से किया जा सकता है.

ऐसी दशा में उनके दल में बुद्धि-भेद और शिथिलता पैदा करने वाली कोई भी भावपूर्ण अपील एकदम बुद्धिमानी से रहित और क्रांतिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करनेवाली होगी.

इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्राँतिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाएँ बंद रखिए.

कृपा कर हित की दृष्टि से इन दो में से एक कोई रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए.

अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी करके उन पर रहम करें. उन्हें अलग रहने दें. वे अपनी हिफाजत आप अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं.

वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रांतिकारी पक्ष को ही मिलनेवाला है.

लोकसमूह उनके आसपास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जमसमूह को अपने झंडे तले, समाजसत्ता, प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदर्श की ओर ले जाते होंगे.

अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका दृष्टिकोण समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए.

आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे.

आपका
अनेकों में से एक

(यह पत्र 80 के दशक में राजकमल प्रकाशन ने हिंदी में छापा था. यहाँ प्रकाशन के इस संस्करण के संपादकों की अनुमति से यह हिस्सा इस्तेमाल किया गया है.)

Sunday, January 18, 2009

धर्म को कोई नाम ना दो:ओशो

मैं आपको स्मरण दिलाऊं कि न तो जैन कोई धर्म है, न हिंदू कोई धर्म है, न इस्लाम कोई धर्म है, न ईसाईयत कोई धर्म है; धर्म तो एक ही है। बहुत धर्म हो भी नहीं सकते। जो सत्
य है, वह एक ही हो सकता है। असत्य ही केवल अनेक हो सकते हैं, बीमारियां अनेक हो सकती हैं, पर स्वास्थ्य एक ही हो सकता है।

और जिस धर्म के साथ नाम हो, जितना वह नाम वजनी होगा, उतना ही धर्म कम हो जाएगा। उसमें जितने विशेषण लगेंगे, वह और बोझिल होगा और धर्म उतना ही कम हो जाएगा। सारे विशेषण धर्म नहीं हैं। इन्हीं विशेषणों के कारण हम बहुत मुसीबत में पड़े हुए हैं। मनुष्य के जीवन में, मनुष्य के इतिहास में, इन विशेषणों ने, इन संप्रदायों ने, इन नामों ने जितनी पीड़ा पहुंचाई है, न तो राजनीति ने पहुंचाई है, न अत्याचारियों ने पहुंचाई है, न पापियों ने पहुंचाई है, न दुष्टों ने पहुंचाई है, न हिंसकों ने पहुंचाई है। इस जगत को जितनी पीड़ा तथाकथित धार्मिक लोगों ने, धर्म के नाम पर चलाए हुए प्रचलित संप्रदायों ने पहुंचाई है, उतना किसी और ने नहीं पहुंचाई है।

मनुष्य और मनुष्य के बीच और कोई दीवार नहीं है, सिवाय विशेषणों के। और मैं आपको कहूं, जो मनुष्य को मनुष्य से तोड़ दे, वह मनुष्य को स्वयं से जोड़ने में सफल नहीं हो सकता। जो धर्म मनुष्य को स्वयं से जोड़ता है, वह अनिवार्य रूप से सबसे जोड़ देता है। स्वयं से जो जुड़ गया, वह सब से जुड़ गया, क्योंकि वहां स्वयं के तल पर कोई द्वंद्व नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि जैन, हिंदू और मुसलमान इन शब्दों को छोड़ दें, इनके नीचे शब्दों से रहित जो शून्य मिलेगा, वह धर्म है। ये शब्द तो व्यर्थ हैं, इन शब्दों से संप्रदाय बने हैं, इन शब्दों से दीवारें बनी हैं और इन शब्दों के कारण धर्म तिरोहित होता चला जा रहा है।

किसी आदमी से पूछो धार्मिक हो? वह कहेगा, मैं जैन हूं या हिंदू हूं या मुसलमान हूं। धार्मिक आदमी इस धरती पर खोजना मुश्किल हो गया है। और अगर मैं किसी से कहूं कि मैं धार्मिक हूं, तो वह खोद-खोद कर पूछता है किस धर्म के हो? जैसे कि कोई धर्म हो सकता है।

मुझे महावीर 'जैन' नहीं मालूम होते और क्राइस्ट 'क्रिश्चियन' नहीं मालूम होते। कृष्ण मुझे हिंदू नहीं मालूम होते। अगर ये कुछ हैं, तो ये सारे लोग एक ही धर्म के हिस्से हैं। काश, हमारी आंखों से नामों का जाल गिर जाए, तो हम कितने समृद्ध हो जाएंगे। तब सारे सत्पुरुषों की परंपरा हमारी होगी। तब महावीर ही हमारे नहीं होंगे, तब कृष्ण और क्राइस्ट और कनफ्यूशियस भी हमारे होंगे। तब मनुष्य की सारी परंपराएं, प्रत्येक मनुष्य की अपनी होंगी।

संप्रदाय पकड़ लिए जाएं तो धर्म के दुश्मन हो जाते हैं। संप्रदाय छोड़ दिए जाएं तो धर्म की सीढि़यां हो जाते हैं। वे ही सीढि़यां रुकावट के पत्थर बन सकती हैं, वे ही पत्थर चढ़ने के लिए सीढि़यां बन सकते हैं। संप्रदाय जोर से पकड़े गए हैं, इसलिए धर्म जमीन पर तिरोहित होता चला जा रहा है। संप्रदायों को छोड़ देना होगा, ताकि धर्म पुनर्स्थापित हो सके।

जैन को कहना होगा मैं जैन नहीं हूं, धार्मिक हूं; हिंदू को कहना होगा, मैं हिंदू नहीं हूं धार्मिक हूं; ईसाई को कहना होगा, मैं ईसाई नहीं हूं, धार्मिक हूं। सारे जगत में धर्म के उद्घोष को वापस स्थापित करना जरूरी है। महावीर ने अपने शब्दों में कहीं नहीं कहा- जैन धर्म, वह कहते थे, सम्यक धर्म। बुद्ध ने कहीं नहीं कहा- बुद्ध धर्म, वे कहते थे, सच्चा धर्म। क्राइस्ट ने कहीं नहीं कहा- क्रिश्चियन धर्म, कृष्ण ने कहीं नहीं कहा, हिंदू धर्म; आज तक जगत में जो लोग सत्य को उपलब्ध हुए हैं, उन्होंने धर्म को कोई नाम नहीं दिया। उन्होंने दो ही धाराएं मानी हैं, एक अधर्म की धारा है, एक धर्म की धारा है। अगर अधार्मिक एक ही तरह का होता है, तो धार्मिक को एक ही तरह का होना पड़ेगा। तभी अधर्म नष्ट हो सकता है।
सौजन्य : ओशो इंटरनैशनल फाउंडेशन
(19 जनवरी ओशो का निर्वाण दिवस है।)

Saturday, January 17, 2009

दहेज की बारात / काका हाथरसी

जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र

फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र

यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी

बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी

कहँ 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके

कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके


मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल

दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल

तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का

दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का

कहँ 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई

पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई


नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ

मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट

मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता

फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता

कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी

पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी


फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय

एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय

एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी

मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी

कहँ 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया

छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया


जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर

मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर

सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़

स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़

कहँ 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ

निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ


बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक

दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक

नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर

दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर

कहँ 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे

अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे


बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ

पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात

सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे

पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे

कहँ 'काका' कविराय, जान आफत में आई

जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई


समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात

चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात

थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी

देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी

कहँ 'काका' कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को

पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को


मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात

बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात

आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी

दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं

कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ

बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ


हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ

काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ

आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई

जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई

कहँ 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे

अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे

Thursday, January 15, 2009

A Lesson Learnt By Britain...............

"ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिबैंड ने 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई' को एक गलती और गुमराह करने वाली मुहिम बताया है. ब्रिटिश अख़बार गार्डियन में छपे अपने लेख में मिलिबैंड ने कहा है कि इससे फ़ायदे से ज़्यादा नुक़सान हुआ है."

It was not a long back that Britain was giving its full fledged support to so called "WAR ON TERRORISM” BY Mr Bush which included the Execution of Saddam Husain and trying to control Iraqis.
In recent times Bush has accepted that it was a big mistake. Now these countries are learning that every war cannot be won by Force and Terror. Some wars are even bigger than that. But it is interesting to know that what made Miliband and Bush to observe this, that too after Proceedings after Mumbai attack.
Now when they see that their plans are not working and Indo-Pak is not responding to them they again began to raise the Kashmir issue. They actually do not want that both country come together.
It was first time in the history that Pakistan responded to Indian call and it was first time that India provided Pakistan with some kind of proof. Here it is interesting to know that America and Britain always knew that Pakistan is always responsible for those kinds of attacks but they also this time wanted a war between India and Pakistan for their same old purpose:
Selling their warheads as it will give some boost to their shrinking economy and
Divide and rule policy because India together with Pakistan is an undisputed Super Power.
But what India and Pakistan did that they started responding in their own way. They have won a big battle .Congratulation to them for their patience.
That does not mean that Indian politician has done everything right. Only thing in which congress has been mistaken in “Nuclear Deal with America” which is a non profitable for India and a Golden Bird for America.
America and Briton are nobodies friend. We as a countryman has to understand that and stop fighting among ourselves. It is true that a calamity has been done by some anti social element.This does not mean that we surrender to the situation and loose one more war. We should use this calamity in a positive manners. To be united. To be more secure. That is our only strength. Love is all powerful and can bring a vast transformation.
We should develop more trust and love between ourselves and between two countries.We should be strong enough to win the war from inequality, poverty ,illiteracy and orthodoxy but first of all we have to change than try to change the world.
These are my free thoughts .Feel free to share your opinion.

Wednesday, January 14, 2009

scene fom the Gaza...The consequenses of War

WHEN I got there, the gates of Beit Hanoun hospital were shut, with teenage men hanging off them. The mass of people striving to get inside was a sign that there had been an attack. Inside the gates, the hospital was full. Parents, wives, cousins, emotionally frayed and overwhelmed, were leaning over injured loved ones.

The Israeli Apache helicopter had attacked at 3.15pm. Witnesses said that two missiles had been fired into the street in Hay al Amel, east Beit Hanoun, close to the border with Israel. With rumours of an imminent invasion this empty scrubland is rapidly becoming a no-man's land which people cross quickly, fearing attack by Israeli jets.

But the narrow, busy streets of the Boura area rarely escape the intensifying airstrikes.

Eyewitnesses said children had been playing and waiting in the streets there for their parents to finish praying at the nearby mosque. "We could see it so clearly, it was so close, we looked up and everyone ran. Those that couldn't were soon flat on the ground," said Khalil Abu Naseer, who was lucky to have escaped the incoming missile.

"Look at this, take it," insisted men in the street, handing me pieces of the missile the size of a fist, all with jagged edges.

"All the windows were blown out, our doors were blown in, there was glass everywhere," explained a neighbour. It was these lumps of missile, rock and flying glass that smashed into the legs, arms, stomachs, heads and backs of 16 people, two of them children, who had been brought to Beit Hanoun Hospital on Thursday afternoon.

Fadi Chabat, 24, was working in his shop, a small tin shack that was a community hub selling sweets, cigarettes and chewing gum. When the missile exploded, he suffered multiple injuries. He died on Friday morning in Kamal Adwahn Hospital in Jabaliya. As women attended the grieving room at Fadi Chabat's home yesterday to pay their respects, Israeli F16 fighter jets tore through the skies overhead and blasted four more bombs into the empty areas on the border. Two elderly women in traditional embroidered red and black dresses carrying small black plastic shopping bags moved as quickly as they could; others disappeared behind the walls of their homes, into courtyards and off the streets.

At Fadi's house the grief was still fresh. Nearly all the women were crying, a collective outpouring of grief and raw pain with free-flowing tears.

"He prayed five times a day, he was a good Muslim, he wasn't part of any group, not Fatah, not Hamas, not one, none of them, he was a good student, and he was different," said one of his sisters. She took me to see Fadi's younger brother, who had been wounded in the same airstrike. Omar, eight, was sitting on his own in a darkened bedroom on a foam mattress with gauze on his back covering his wounds.

"He witnessed everything, he saw it all," the sisters explained. "He kept saying, I saw the missile, I saw it, Fadi's been hit by a missile'."

The memory sets Omar off into more tears, his sisters, mother and aunts breaking down along with him.

Nine-year-old Ismaeel, who had been on the street with his sisters Leema, four, and Haya, 12, had been taking out rubbish when they were struck by the missiles.

Ismaeel had been brought into the hospital still breathing and doctors at first though he would pull through, but in the end he died of internal injuries.

Within the past six days in Beit Hanoun alone, according to hospital records seven people have been killed, among them three children and a mother of ten other youngsters. Another 75 people have been injured, including 29 children and 17 women.

As well as the fatalities and wounded, hundreds of homes have had their windows blown out and been damaged by flying debris and shrapnel. Two homes have been totally destroyed. Nearby the premises of two organisations have been reduced to rubble. One of them, the Sons of the City Charity, associated with Hamas, was blasted with two Apache-fired missiles, gutting a neighbouring apartment in the process and breaking windows at Beit Hanoun Hospital. The Cultural Development Association and the offices of the Popular Front for the Liberation of Palestine, were levelled by bombs dropped from F16 jets.

It is hard to imagine what the Israeli pilots of these aircraft see from so far up in the sky. Do they see people walking; standing around and talking in the street; kids with sticks chasing each other in play? Or are the figures digitised, micro-people, perhaps just blips on a screen?

Whatever is seen from the air, the victims are often ordinary people. Last Thursday night saw volunteers from the Palestinian Red Crescent Society in Beit Hanoun take to the streets in an effort to save lives. Like all emergency medical staff in Gaza, they risk death working in the maelstrom of every Israeli invasion, during curfews and night fighting.

In one of the ambulances during an evening of total darkness caused by nightly power cuts, I meet Yusri, a veteran of more than 14 years of Israeli incursions into the Beit Hanoun district of Gaza. Moustachioed, energetic, and gregarious, Yusri is in his 40s and a local hero. Seen by people within the community as a man who rarely sleeps, he is a front-line paramedic who zooms through Gaza's streets to reach casualties, ambulance horn blaring as he shouts through a loudhailer for onlookers and the dazed to get out of the way.

"Where's the strike?" Yusri asks locals, as we pick our way through a gutted charred charity office and the house of the Tarahan family. Their home, on the buffer zone, has been reduced to a concrete sandwich. There are six casualties, but miraculously none of them are serious.

Beit Hanoun Hospital is a simple, 48-bed local facility with no intensive care unit, decrepit metal stretchers and rickety beds. I drink tea in a simple office with a garrulous crowd of ear, nose and throat specialists, surgeons and paediatricians. The talk is all about politics: how the plan for Gaza is to merge it with Egypt; how Israel doesn't want to liquidate Hamas as it serves their goal of a divided Palestine to have a weak Hamas alienated from the West Bank.

The chat is interrupted by lulls of intent listening as news crackles through on Sawt Al Shab ("The Voice Of The People"), Gaza's grassroots news station. Almost everyone here is tuned in. It is listened to by taxi drivers, families in their homes huddled around wood stoves or under blankets and groups of men on street corners crouched beside transistor radio sets.

It feeds live news on the latest resistance attacks, interspersed with political speeches from various leaders, and fighter music - thoaty, deep male voices united in buoyant battle songs about standing up, reclaiming al-Quds (Jerusalem) avenging fresh martyrs, and staying steadfast.

News is fed through on operations by armed wings of every political group active in Gaza; the Qasam (Hamas), the Abu Ali Mustapha Martyrs Brigade (PFLP), the Al Aqsa Martyrs Brigade (which is affiliated with Fatah) and Saraya al-Quds (Islamic Jihad). One thing is widely recognised - the attack on Gaza has brought all armed resistance groups together. However, everybody adds wryly that "once this is all over, they'll all break apart again".

One of the surgeons asks me about whether I'm scared, and whether I really think I have protection as a foreigner here. I talk in detail about Israel's responsibility to protect emergency services; to cease fire; to facilitate movement;, to respect the Geneva Conventions, including protection of civilians and injured combatants. The surgeon talking to me is an intelligent man, highly respected in the community, in his late 40s. He takes his time, explaining to me in detail that all the evidence from everything Gazans have experienced points to Israel operating above the law - that there is no protection, that these laws, these conventions, do not seem to apply to Israel, nor does it abide by them, and that I should be afraid, very afraid, because Gazans are afraid.

He recounts a story from the November 2006 invasion which saw more than 60 people killed, one entire family in one day alone. About 100 tanks invaded Beit Hanoun, with one blocking each entrance for six days. He remembers how the Red Cross brought water and food and took away the refuse. All co-ordination was cut off with the Palestinian Authority. The same will happen this time, he insists. He remembers too how one ambulance driver, Yusri, a maverick, a hero, loved by all the staff and community, faced down the tanks to evacuate the injured. Yusri, the surgeon says, just drove up to the tank and started shouting through his loudhailer, telling them to move for the love of God because we had a casualty, then just swerved round them and made off.

Yusri has carried the injured and dead in every invasion in the past 14 years. He shows me a leg injury sustained when a tank rammed into his ambulance. The event was caught on camera by journalists, and a case brought against the Israel Occupation Forces, but they ruled the army had acted appropriately in self defence.

"Look in the back of the ambulance here, how many people do you think can fit in here? I was carrying 10 corpses at a time after the invasion, there was a man cut in two here in the back, it was horrific. But you carry on. I want to serve my country," he says.

During a prolonged power cut in that six-day invasion there was no electricity to power a ventilator, and doctors took turns hand pumping oxygen to keep one casualty alive for four hours before they could be transferred. Roads were bulldozed, ambulances were banned from moving, dead people lay in their homes for days, and when permission was finally given for the corpses' collection, medics had to carry them on stretchers along the main street.

Today in Gaza everyone is terrified that such events are now repeating themselves, only worse. Gazans now feel collectively abandoned. The past week's massacres, indiscriminate attacks and overflowing hospitals, and the fact that anyone can be hit at any time in any place, has left people utterly terrorised. No-one dares think of what might become of them in these difficult and unpredictable days. As they say in Gaza, "Bein Allah" - "It's up to God".

Ewa Jasiewicz is a journalist and activist. She is currently the co-ordinator for the Free Gaza movement and one of the only international journalists on the ground in Gaza

Wednesday, January 7, 2009

मैं नास्तिक क्यों हूँ: भगत सिंह
भगत सिंह
भगत सिंह ईश्वर के अस्तित्व को सिरे से नकारते थे
(यह लेख भगत सिंह ने जेल में रहते हुए लिखा था जो भगत सिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में रहा है. इस लेख में उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी धारणा और तर्कों को सामने रखा है. यहाँ इस लेख का कुछ हिस्सा प्रकाशित किया जा रहा है.)

*****************

प्रत्येक मनुष्य को, जो विकास के लिए खड़ा है, रूढ़िगत विश्वासों के हर पहलू की आलोचना तथा उन पर अविश्वास करना होगा और उनको चुनौती देनी होगी.

प्रत्येक प्रचलित मत की हर बात को हर कोने से तर्क की कसौटी पर कसना होगा. यदि काफ़ी तर्क के बाद भी वह किसी सिद्धांत या दर्शन के प्रति प्रेरित होता है, तो उसके विश्वास का स्वागत है.

उसका तर्क असत्य, भ्रमित या छलावा और कभी-कभी मिथ्या हो सकता है. लेकिन उसको सुधारा जा सकता है क्योंकि विवेक उसके जीवन का दिशा-सूचक है.

लेकिन निरा विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है. यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. जो मनुष्य यथार्थवादी होने का दावा करता है उसे समस्त प्राचीन विश्वासों को चुनौती देनी होगी.

यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे. तब उस व्यक्ति का पहला काम होगा, तमाम पुराने विश्वासों को धराशायी करके नए दर्शन की स्थापना के लिए जगह साफ करना.

यह तो नकारात्मक पक्ष हुआ. इसके बाद सही कार्य शुरू होगा, जिसमें पुनर्निर्माण के लिए पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग किया जा सकता है.

जहाँ तक मेरा संबंध है, मैं शुरू से ही मानता हूँ कि इस दिशा में मैं अभी कोई विशेष अध्ययन नहीं कर पाया हूँ.

एशियाई दर्शन को पढ़ने की मेरी बड़ी लालसा थी पर ऐसा करने का मुझे कोई संयोग या अवसर नहीं मिला.

लेकिन जहाँ तक इस विवाद के नकारात्मक पक्ष की बात है, मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न उठाने के संबंध में आश्वस्त हूँ.

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है.

मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन, परम-आत्मा का, जो कि प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करती है, कोई अस्तित्व नहीं है

हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगति का ध्येय मनुष्य द्वारा, अपनी सेवा के लिए, प्रकृति पर विजय पाना है. इसको दिशा देने के लिए पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है. यही हमारा दर्शन है.

जहाँ तक नकारात्मक पहलू की बात है, हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं-(i) यदि, जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक एवं सर्वज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?

कष्टों और आफतों से भरी इस दुनिया में असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबंधनों से ग्रसित एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं.

कृपया, यह न कहें कि यही उसका नियम है. यदि वह किसी नियम में बँधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं. फिर तो वह भी हमारी ही तरह गुलाम है.

कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका शग़ल है.

नीरो ने सिर्फ एक रोम जलाकर राख किया था. उसने चंद लोगों की हत्या की थी. उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने शौक और मनोरंजन के लिए.

और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं?

सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं. जालिम, निर्दयी, शैतान-जैसे शब्दों से नीरो की भर्त्सना में पृष्ठ-के पृष्ठ रंगे पड़े हैं.

एक चंगेज़ खाँ ने अपने आनंद के लिए कुछ हजार ज़ानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं.

तब फिर तुम उस सर्वशक्तिमान अनंत नीरो को जो हर दिन, हर घंटे और हर मिनट असंख्य दुख देता रहा है और अभी भी दे रहा है, किस तरह न्यायोचित ठहराते हो?

फिर तुम उसके उन दुष्कर्मों की हिमायत कैसे करोगे, जो हर पल चंगेज़ के दुष्कर्मों को भी मात दिए जा रहे हैं?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है"

मैं पूछता हूँ कि उसने यह दुनिया बनाई ही क्यों थी-ऐसी दुनिया जो सचमुच का नर्क है, अनंत और गहन वेदना का घर है?

सर्वशक्तिमान ने मनुष्य का सृजन क्यों किया जबकि उसके पास मनुष्य का सृजन न करने की ताक़त थी?

इन सब बातों का तुम्हारे पास क्या जवाब है? तुम यह कहोगे कि यह सब अगले जन्म में, इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है.

ठीक है, ठीक है. तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे जो हमारे शरीर को जख्मी करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में इस पर बहुत कोमल तथा आरामदायक मलहम लगाएगा?

ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापकों तथा सहायकों का यह काम कहाँ तक उचित था कि एक भूखे-खूँख्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उस जंगली जानवर से बचकर अपनी जान बचा लेता है तो उसकी खूब देख-भाल की जाएगी?

इसलिए मैं पूछता हूँ, ‘‘उस परम चेतन और सर्वोच्च सत्ता ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों का सृजन क्यों किया? आनंद लुटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?’’

मुसलमानों और ईसाइयों. हिंदू-दर्शन के पास अभी और भी तर्क हो सकते हैं. मैं पूछता हूँ कि तुम्हारे पास ऊपर पूछे गए प्रश्नों का क्या उत्तर है?

किताबें
भगत सिंह के लेखन और विचार पर कई दशकों के बाद काम हुआ

तुम तो पूर्व जन्म में विश्वास नहीं करते. तुम तो हिन्दुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्व जन्मों के कुकर्मों का फल है.

मैं तुमसे पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व की उत्पत्ति के लिए छः दिन मेहनत क्यों की और यह क्यों कहा था कि सब ठीक है.

उसे आज ही बुलाओ, उसे पिछला इतिहास दिखाओ. उसे मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन करने दो.

फिर हम देखेंगे कि क्या वह आज भी यह कहने का साहस करता है- सब ठीक है.

कारावास की काल-कोठरियों से लेकर, झोपड़ियों और बस्तियों में भूख से तड़पते लाखों-लाख इंसानों के समुदाय से लेकर, उन शोषित मजदूरों से लेकर जो पूँजीवादी पिशाच द्वारा खून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक या कहना चाहिए, निरुत्साहित होकर देख रहे हैं.

और उस मानव-शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं जिसे देखकर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा; और अधिक उत्पादन को जरूरतमंद लोगों में बाँटने के बजाय समुद्र में फेंक देने को बेहतर समझने से लेकर राजाओं के उन महलों तक-जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है...उसको यह सब देखने दो और फिर कहे-‘‘सबकुछ ठीक है.’’ क्यों और किसलिए? यही मेरा प्रश्न है. तुम चुप हो? ठीक है, तो मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ.

और तुम हिंदुओ, तुम कहते हो कि आज जो लोग कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं. ठीक है.

तुम कहते हो आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं.

मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे.

उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफी ताकत है.

लेकिन हमें यह विश्लेषण करना है कि ये बातें कहाँ तक टिकती हैं.

न्यायशास्त्र के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वानों के अनुसार, दंड को अपराधी पर पड़नेवाले असर के आधार पर, केवल तीन-चार कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. वे हैं प्रतिकार, भय तथा सुधार.

आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वही है.

केवल सुधार करने का सिद्धांत ही आवश्यक है और मानवता की प्रगति का अटूट अंग है. इसका उद्देश्य अपराधी को एक अत्यंत योग्य तथा शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है.

लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?

लेकिन यदि हम यह बात मान भी लें कि कुछ मनुष्यों ने (पूर्व जन्म में) पाप किए हैं तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की प्रकृति क्या है?

तुम कहते हो कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो.

मैं पूछता हूँ कि मनुष्य पर सुधारक के रूप में इनका क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गदहा के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?

अपने पुराणों से उदाहरण मत दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है. और फिर, क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है? गरीबी एक अभिशाप है, वह एक दंड है.

मैं पूछता हूँ कि अपराध-विज्ञान, न्यायशास्त्र या विधिशास्त्र के एक ऐसे विद्वान की आप कहाँ तक प्रशंसा करेंगे जो किसी ऐसी दंड-प्रक्रिया की व्यवस्था करे जो कि अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे?

क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था? या उसको भी ये सारी बातें-मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की कीमत पर-अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो.

किसी गरीब तथा अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहाँ पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा? चूँकि वह गरीब हैं, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता.

वह अपने उन साथियों से तिरस्कृत और त्यक्त रहता है जो ऊँची जाति में पैदा होने की वजह से अपने को उससे ऊँचा समझते हैं.

उसका अज्ञान, उसकी गरीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं.

मान लो यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी?

और उन लोगों के दंड के बारे में तुम क्या कहोगे जिन्हें दंभी और घमंडी ब्राह्मणों ने जान-बूझकर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिन्हें तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों-वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा को सहने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी?

यदि वे कोई अपराध करते हैं तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा और उसका प्रहार कौन सहेगा?

मेरे प्रिय दोस्तो. ये सारे सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं. ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूँजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.

जी हाँ, शायद वह अपटन सिंक्लेयर ही था, जिसने किसी जगह लिखा था कि मनुष्य को बस (आत्मा की) अमरता में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसका सारा धन-संपत्ति लूट लो.

वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा. धर्म के उपदेशकों तथा सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फाँसीघर, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं.

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?

मैं पूछता हूँ कि तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को उस समय क्यों नहीं रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है?

ये तो वह बहुत आसानी से कर सकता है. उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं को या उनके अंदर लड़ने के उन्माद को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे क्यों नहीं बचाया?

उसने अंग्रेज़ों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने हेतु भावना क्यों नहीं पैदा की?

वह क्यों नहीं पूँजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत संपत्ति का अपना अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव-समाज को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करें.

आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूँ कि वह इसे लागू करे.

भगत सिंह
भगत सिंह का जन्म एक सिख परिवार में हुआ जो आर्यसमाज में आस्था रखता था

जहाँ तक जनसामान्य की भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं, पर वह इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं.

चलो, आपका परमात्मा आए और वह हर चीज़ को सही तरीके से कर दें.

अब घुमा-फिराकर तर्क करने का प्रयास न करें, वह बेकार की बातें हैं. मैं आपको यह बता दूँ कि अंग्रेज़ों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है, बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हम में उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं.

वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं.

यह हमारी ही उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध-एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारपूर्ण शोषण-सफलतापूर्वक कर रहे हैं.

कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो.

कहाँ है ईश्वर? वह क्या कर रहा है? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? वह नीरो है, चंगेज़ है, तो उसका नाश हो

क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति और मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हें बतलाता हूँ. चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसको पढ़ो.

सोहन स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ पढ़ो. तुम्हें इस सवाल का कुछ सीमा तक उत्तर मिल जाएगा. यह (विश्व-सृष्टि) एक प्राकृतिक घटना है. विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.

कब? इतिहास देखो. इसी प्रकार की घटना का जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर के बाद मानव. डारविन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो.

और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति से लगातार संघर्ष और उस पर विजय पाने की चेष्टा से हुआ. यह इस घटना की संभवतः सबसे संक्षिप्त व्याख्या है.

तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लँगड़ा पैदा होता है, यदि यह उसके पूर्वजन्म में किए कार्यों का फल नहीं है तो?

जीवविज्ञान-वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाला है.

उनके अनुसार इसका सारा दायित्व माता-पिता के कंधों पर है जो अपने उन कार्यों के प्रति लापरवाह अथवा अनभिज्ञ रहते हैं जो बच्चे के जन्म के पूर्व ही उसे विकलांग बना देते हैं.

स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे

स्वभावतः तुम एक और प्रश्न पूछ सकते हो-यद्यपि यह निरा बचकाना है. वह सवाल यह कि यदि ईश्वर कहीं नहीं है तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे?

मेरा उत्तर संक्षिप्त तथा स्पष्ट होगा-जिस प्रकार लोग भूत-प्रेतों तथा दुष्ट-आत्माओं में विश्वास करने लगे, उसी प्रकार ईश्वर को मानने लगे.

अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और उसका दर्शन अत्यंत विकसित.

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की

कुछ उग्र परिवर्तनकारियों (रेडिकल्स) के विपरीत मैं इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को नहीं देता जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश देकर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे और उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.

यद्यपि मूल बिंदु पर मेरा उनसे विरोध नहीं है कि सभी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएँ अन्त में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं.

राजा के विरुद्ध विद्रोह हर धर्म में सदैव ही पाप रहा है.

ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने अपनी सीमाओं, दुर्बलताओं व कमियों को समझने के बाद, परीक्षा की घड़ियों का बहादुरी से सामना करने स्वयं को उत्साहित करने, सभी खतरों को मर्दानगी के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बाँधने के लिए-ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना की.

अपने व्यक्तिगत नियमों और अविभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ाकर कल्पना एवं चित्रण किया गया.

जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है तो उसका उपयोग एक डरानेवाले के रूप में किया जाता है, ताकि मनुष्य समाज के लिए एक खतरा न बन जाए.

जब उसके अविभावकीय गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है.

इस प्रकार जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों के विश्वासघात और उनके द्वारा त्याग देने से अत्यंत दुखी हो तो उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसे सहारा देगा, जो कि सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है.

वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था. विपदा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना सहायक होती है.

समाज को इस ईश्वरीय विश्वास के विरूद्ध उसी तरह लड़ना होगा जैसे कि मूर्ति-पूजा तथा धर्म-संबंधी क्षुद्र विचारों के विरूद्ध लड़ना पड़ा था.

मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी

इसी प्रकार मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करने लगे और यथार्थवादी बन जाए तो उसे ईश्वरीय श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पौरुष के साथ सामना करना चाहिए जिसमें परिस्थितियाँ उसे पलट सकती हैं.

मेरी स्थिति आज यही है. यह मेरा अहंकार नहीं है.

मेरे दोस्तों, यह मेरे सोचने का ही तरीका है जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास और रोज़-बरोज़ की प्रार्थना-जिसे मैं मनुष्य का सबसे अधिक स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूँ-मेरे लिए सहायक सिद्घ होगी या मेरी स्थिति को और चौपट कर देगी.

मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया, अतः मैं भी एक मर्द की तरह फाँसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊँचा किए खड़ा रहना चाहता हूँ.

देखना है कि मैं इस पर कितना खरा उतर पाता हूँ. मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा.

जब मैंने उसे अपने नास्तिक होने की बात बतलाई तो उसने कहा, ‘देख लेना, अपने अंतिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे.’ मैंने कहा, ‘नहीं प्रिय महोदय, ऐसा नहीं होगा. ऐसा करना मेरे लिए अपमानजनक तथा पराजय की बात होगी.

स्वार्थ के लिए मैं प्रार्थना नहीं करूँगा.’ पाठकों और दोस्तो, क्या यह अहंकार है? अगर है, तो मैं इसे स्वीकार करता हूँ.

(यह लेख 80 के दशक में राजकमल प्रकाशन ने भी हिंदी में छापा. यहाँ प्रकाशन के इस संस्करण के संपादकों की अनुमति से यह हिस्सा इस्तेमाल किया गया है.)